दोपहर के समय पूजा करते पुजारी और आसपास लगी भक्तों की भीड़।
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में एक ऐसी शिव परंपरा जीवित है, जिसे लोग 11 साल तक इंतजार करने के बाद ही देख पाते हैं। ‘ख्वदै पूजा’ नाम की यह रहस्यमयी पूजा रात के अंधेरे में होती है और इसमें भगवान शिव के अलखनाथ रूप के अवतरण की मान्यता जुड़ी है।
इस अनुष्ठान के दौरान घर की छत का हिस्सा खुला रखा जाता है, दरवाजे पर पर्दा लगाया जाता है और देव डंगरियों के आवाहन के विशेष विधान पूरे किए जाते हैं।
पिछले कुछ सालों में कुछ लोग इसे गलतफहमी में ‘खुदा पूजा’ कहने लगे हैं, लेकिन संस्कृति विशेषज्ञ इसे स्पष्ट रूप से खारिज करते हैं। वरिष्ठ साहित्यकार पद्मादत्त पंत कहते हैं-
यह शिव परंपरा है, इसका किसी बाहरी शासन या कालखंड से कोई संबंध नहीं। सही उच्चारण ख्वदै पूजा है।

शोधकर्ता भी मानते हैं कि पुरानी कुमाऊंनी लोकपरंपरा को गलत नाम देना इसके इतिहास के साथ अन्याय है।

पूजा के लिए लोग हर 11 साल में अपने गांव लौटते हैं और पूरे रीति रिवाजों के साथ इसमें शामिल होते हैं।
पहले जानिए कैसे और क्यों रात के अंधेरे में संपन्न होती है ख्वदै पूजा…
पिथौरागढ़ के कई गांवों में होती है ये अनोखी पूजा
ख्वदै पूजा की परंपरा मुख्य रूप से उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले, विशेषकर मुनस्यारी के गांवों में है। तल्ला जोहार के नाचनी से लेकर मल्ला जोहार तक इस पूजा का आयोजन किया जाता है। इसके अलावा कनालीछीना ब्लॉक के आणांगांव सहित कुछ अन्य गांवों में भी यह अनोखी पूजा होती है।
खास बात यह है कि ख्वदै पूजा के लिए गांव के साथ ही शहरों में नौकरी करने वाले परिवार भी अवश्य लौटते हैं, क्योंकि यह पूजा 11 साल में केवल एक बार होती है।
ढोल-नगाड़ों की थाप पर अवतरित होते हैं अलखनाथ
ख्वदै पूजा में अलखनाथ यानी भगवान शिव की पूजा होती है। पूजा से एक दिन पहले देव डंगरियों को पवित्र नदियों या नौलों में स्नान कराया जाता है। दिन में अलखनाथ, दुर्गा, कालिका और स्थानीय देवी–देवताओं की स्थापना की जाती है।
पूजा की शुरुआत मंदिर परिसर में धूनी जलाने से होती है, जिसे पुजारी प्रज्ज्वलित करते हैं। शाम को गणेश पूजा और महाआरती की जाती है। इसके बाद ढोल–नगाड़ों की थाप पर जगरिये अलखनाथ की गाथा गाते हैं।
इसी गाथा के दौरान भगवान अलखनाथ के अवतरित होने की मान्यता है और देव डंगरियों के माध्यम से श्रद्धालुओं को आशीर्वाद दिया जाता है। कुछ गांवों में यह 3 से 22 दिन तक भी चलती है।

पूजा स्थल के आसपास बैठे बड़ी संख्या में लोग।
पूरी पूजा पर्दे के भीतर होती है संपन्न
ख्वदै पूजा में पदम वृक्ष को न्यौता देने की परंपरा है। पर्वतीय क्षेत्रों में पदम को पैय्यां कहा जाता है, इसलिए इसे ‘पैय्यां न्यौता’ कहा जाता है। पदम की टहनियां ढोल–नगाड़ों के साथ पूजा स्थल तक लाई जाती हैं और इन्हें पार्वती का स्वरूप मानकर भगवान अलखनाथ के विवाह की रस्म निभाई जाती है।
पूजा देर रात की जाती है। जहां पूजा होती है, उस कमरे की छत का छोटा हिस्सा खुला रखा जाता है और अंदर सभी को प्रवेश की अनुमति नहीं होती। पूरी पूजा पर्दे के भीतर होती है, क्योंकि मान्यता है कि भगवान शिव यानी अलखनाथ एकांत पसंद करते हैं, इसलिए पवित्रता और गोपनीयता का विशेष ध्यान रखा जाता है।

ढोल–नगाड़ों एवं अन्य पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ पूजा स्थल पर पहुंचते लोग।
ख्वदै पूजा को ‘खुदा पूजा’ कहना क्यों गलत
भगवान अलखनाथ की इस विशेष पूजा को ख्वदै पूजा क्यों कहा जाता है, इसका स्पष्ट ऐतिहासिक आधार नहीं मिलता। लेकिन हाल के वर्षों में कुछ लोग इसे मुगल काल से जोड़ते हुए ‘खुदा पूजा’ कहने लगे हैं। इतिहास और संस्कृति के जानकार इसे पूरी तरह गलत व्याख्या मानते हैं।
पर्वतीय संस्कृति के जानकार और ‘कुमाऊं के देवता’ किताब के लेखक पद्मादत्त पंत कहते हैं-
कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्र में हजारों लोक देवता हैं और उनकी पूजा की अलग-अलग परंपराएं हैं। ख्वदै पूजा भी इन्हीं में से एक है। इसे खुदा पूजा कहना बिल्कुल गलत है।

वरिष्ठ पत्रकार बद्री दत्त कसनियाल भी इसे गलतफहमी मानते हैं। उनका कहना है, “मुगल सैनिकों के कुमाऊं के इन गांवों में आने का कहीं भी उल्लेख नहीं है। इस पूजा का सही उच्चारण ख्वदै पूजा है, और इसमें श्रद्धालु अलखनाथ की ही पूजा करते हैं।” ———— ये खबर भी पढ़ें…
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