
Shabhashu Shukla take water bears on Space: भारत के अंतरिक्षयात्री शुभांशु शुक्ला अंतरर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन जाने वाले हैं. वे अपने साथ एक ऐसे जीव को साथ में ले जा रहे हैं जिनकी उत्पत्ति डायनासोर से भी पहले ह…और पढ़ें

हाइलाइट्स
- शुभांशु शुक्ला अंतरिक्ष में पानी वाला भालू ले जा रहे हैं.
- पानी वाला भालू 5 बार महाविनाश से बचा रहा है.
- यह जीव -272.95°C से 150°C तक जीवित रह सकता है.
Shabhashu Shukla take water bears on Space: यह जीव अपने आप में अजूबा है. हमारी धरती का जन्म लगभग साढ़े 4 अरब साल पहले हुआ था. तब से लेकर धरती पर 5 बार प्राणियों का अंत हो गया. सबसे अंत में अंतरिक्ष से हजारों उल्का पिंड धरती पर गिरे जिसके कारण सारे डायनोसोर मर गए लेकिन यह जीव इतना जीवट निकला कि पांचों बार धरती पर आफत आने के बावजूद यह न केवल जिंदा रहा बल्कि आज तक अपना अस्तित्व कायम किए हुआ है. इस जीव का नाम है वाटर वियर. इसे मॉस पिगलेट भी कहा जाता है. देसी भाषा में इसे पानी वाला भालू कह सकते हैं. लेकिन इसे भालू जितना बड़ा न समझें. यह बहुत ही छोटा होता है. इसका आकार महज 0.5 मिलीमीटर से 1.5 मिलीमीटर तक का होता है. यानी इसे आप सही तरीके से नंगी आंखों से मुश्किल से देख सकते हैं. बहरहाल इसकी चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि भारत के अंतरिक्षयात्री शुभांशु शुक्ला इसे अपने साथ अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन ले जा रहे हैं. वैज्ञानिक स्पेस में ले जाकर यह समझना चाहते हैं कि आखिर इस जीव में कौन सी ऐसी खूबी होती है कि अरबों साल से यह जीव खुद के अस्तित्व को बचाया हुआ है.
इस वाटर बियर को अंग्रेजी में टारडिग्रेड कहा जाता है. यह छोटा सा जीव पानी में रहता है. इसके 8 पैर होते हैं. अगर इसे बड़ा कर दिया जाए तो यह भालू जैसा दिखता है. आपको जानकर हैरानी होगी कि आज से 20 करोड़ साल पहले उल्का पिंड के कारण धरती के इतिहास के सबसे बड़े जीव डायनोसोर का अंत हो गया लेकिन वाटर बियर जीवित रहा. इस जीव का अस्तित्व धरती पर 60 करोड़ साल से अनवरत जारी है. यहां तक कि धरती पर 5 बार महाविनाश आया जिनमें धरती का लगभग समस्त जीवों का अंत हो गया लेकिन वायर बियर इन महाविनाशों से भी बचा रहा. यह बहुत छोटा होता है. इसके आठ पैर होते हैं और हर पैर के अंत में पंजे जैसे संरचनाएं होती हैं. इनका मुंह इस तरह बने होते हैं कि यह पौधों की कोशिकाओं, शैवाल और सूक्ष्म जीवों को आसानी से खा सकते हैं. टारडिग्रेड गहरे समुद्र की खाइयों से लेकर पहाड़ों की चोटियों तक बेहद कठिन परिस्थितियों में जीवित रह सकते हैं. ये अक्सर काई और लाइकेन पर जमी नमी की पतली परत में पाए जाते हैं. इसी कारण इन्हें मॉस पिगलेट्स भी कहा जाता है.
कैसे विपरीत परिस्थिति में जिंदा रहता जीव
टारडिग्रेड की खोज 1773 में जर्मन जीवविज्ञानी जोहान ऑगस्ट एफ्राइम गोएज़ ने की थी लेकिन हाल के दशकों में वैज्ञानिकों की इन जीवों में रुचि बहुत बढ़ी है. इनकी सहनशक्ति अद्भुत है. यह माइनस -272.95°C से 150°C तक के तापमान में जीवित रह सकता है. यह रेडिएशन से लेकर अंतरिक्ष की वैक्यूम वाली स्थिति में दबाव को सहकर जीवित रह सकता है. यह 30 साल तक जमे रहने के बाद भी जीवित रह सकता है. टारडिग्रेड की अद्भुत जीवन रक्षा क्षमता का कारण एक जैविक प्रक्रिया है जिसे क्रिप्टोबायोसिस कहा जाता है. यह प्रक्रिया तब होती है जब पर्यावरणीय संकट आ जाता है और इसके जवाब में शरीर की मेटाबोलिक प्रोसेस को लगभग पूरी तरह बंद कर दी जाती है. इस प्रक्रिया का एक प्रमुख रूप है एन्हाइड्रोबायोसिस. इसमें ये अपने शरीर का 95 प्रतिशत से अधिक जल खो देते हैं और एक सूखी, सिकुड़ी हुई अवस्था में चले जाते हैं जिसे टन कहा जाता है. टन अवस्था में टारडिग्रेड विशेष प्रकार का प्रोटीन बनाता है, जैसे कि साइटोप्लाज्मिक-एबंडेंट हीट सोल्युबल (CAHS) प्रोटीन. ये प्रोटीन कोशिकाओं के भीतर जेल जैसी संरचना बनाते हैं जिससे डीएनए और अन्य कोशिकीय घटकों को सुरक्षित रखा जाता है. यह प्रक्रिया इन्हें कांच जैसी अवस्था में बदल देती है जिससे ये सुरक्षित रहते हैं.
टारडिग्रेड को पहले भी अंतरिक्ष में भेजा गया है. 2007 में यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के फोटोन-एम 3 मिशन पर लगभग 3,000 वाटर बियर अंतरिक्ष में भेजे गए. इन जीवों को एक छोटी कैप्सूल में रखा गया था जिसका ढक्कन खुला जिससे वे सीधे अंतरिक्ष के संपर्क में आए. पृथ्वी पर लौटने के बाद जब यह जल के संपर्क में आया तो इनमें से कई टारडिग्रेड जीवित रह गए. कुछ ने सफलतापूर्वक प्रजनन भी किया. हालांकि पराबैंगनी विकिरण से उनके जीवित रहने की दर थोड़ी कम हुई लेकिन प्रयोग से यह साबित हुआ कि केवल अंतरिक्ष की निर्वात स्थिति उनके लिए घातक नहीं थी. यह ऐतिहासिक परीक्षण टारडिग्रेड को ऐसा पहला ज्ञात प्राणी बनाता है जो अंतरिक्ष में बिना किसी यान या सूट के सीधे संपर्क में आकर भी जीवित रहा.
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