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NATO की बैठक नीदरलैंड के हेग में 24-25 जून को हो रही है। इस बार की बैठक को इतिहास की सबसे अहम बैठकों में माना जा रहा है।
नीदरलैंड के द हेग शहर में आज से नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (NATO) समिट का आज दूसरा दिन है और सदस्य देशों के प्रमुखों की मीटिंग होगी। मीटिंग सिर्फ तीन घंटे चलेगी और जो घोषणा-पत्र जारी होगा वह केवल 5 पैराग्राफ का होगा। ऐसा इस वजह से किया गया है ताकि देशों मतभेद खुलकर सामने न आएं।
इस बार की बैठक को NATO के इतिहास की सबसे अहम बैठकों में माना जा रहा है। यह ऐसे समय हो रही है जब मिडिल ईस्ट में ईरान-इजराइल जंग का 12 दिनों बाद सीजफायर हुआ है, रूस-यूक्रेन में युद्ध जारी है और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था अस्थिर है।

नीदरलेंड के किंग विलेम-अलेक्जेंडर और क्वीन मैक्सिमा ने मंगलवार को NATO देशों के राष्ट्राध्यक्षों और सरकार प्रमुखों के लिए डिनर का आयोजन किया।
ट्रम्प और दूसरे देशों में आर्टिकल 5-रक्षा बजट पर मतभेद
वहीं, इससे पहले मंगलवार को संगठन में मतभेद गहराते नजर आए। समिट में सबसे बड़ी चिंता NATO देशों के बीच रक्षा खर्च को लेकर आपसी मतभेद की रही। NATO महासचिव मार्क रुटे ने कहा कि संगठन यूक्रेन जैसे मुद्दों से निपट सकता है। लेकिन ट्रम्प ने NATO की सबसे अहम संधि Article 5 (एक-दूसरे की रक्षा का वादा) पर सीधा समर्थन देने से इनकार कर दिया।
ट्रम्प चाहते हैं कि सभी सदस्य देश अपने GDP का 5% रक्षा पर खर्च करें, हालांकि वर्तमान में यूरोपीय देशों का कुल योगदान केवल 30% है और GDP का केवल 2% है। ट्रम्प का मानना है कि अमेरिका NATO को बहुत पैसा देता है और बाकी देश अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहे।

NATO का एजेंडा 3.5%-1.5% के समझौते पर
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की मांगों को ध्यान में रखते हुए NATO महासचिव मार्क रूटे ने समिट का एजेंडा तय किया है। बैठक में मुख्य जोर यूरोपीय देशों द्वारा रक्षा खर्च बढ़ाने पर रहा, जिसे ट्रम्प लंबे समय से मांगते आ रहे हैं।
NATO में चल रहे मतभेदों के बीच महासचिव मार्क रूटे ने एक नया प्रस्ताव रखा है। इस प्रस्ताव के मुताबिक, सदस्य देशों को अपनी GDP का 3.5% सीधे सेना और हथियारों पर खर्च करना होगा और 1.5% ऐसे कामों पर जो रक्षा से जुड़े हों।
प्रस्ताव में 1.5% खर्च की परिभाषा बहुत खुली रखी गई है। इसका मतलब यह है कि हर देश इसे अपने तरीके से समझ सकता है और किसी भी खर्च को ‘रक्षा खर्च’ बता सकता है। कुछ देश जैसे पोलैंड, एस्टोनिया और लिथुआनिया (जिन्हें रूस से खतरा ज्यादा है) इस लक्ष्य को पाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन बाकी यूरोपीय देश इस खर्च को पूरा करने में अभी काफी पीछे हैं। कई देशों के लिए यह खर्च बहुत बड़ा है और वे शायद 2032 या 2035 तक भी इस लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएंगे।

NATO की बैठक के पहले दिन सभी सदस्यों के सभी मंत्रियों के लिए एक स्वागत समारोह भी आयोजित किया गया।
स्पेन इस प्रस्ताव के विरोध में
महासचिव मार्क रूटे ने भरोसा जताया था कि सभी 32 देश इस प्रस्ताव का समर्थन करेंगे। रूस की ओर से खतरे को देखते हुए पोलैंड, जर्मनी, नीदरलैंड्स और स्कैंडिनेवियाई देश इस प्रस्ताव को समर्थन दे भी रहे हैं।
वहीं, स्पेन ने साफ कर दिया कि वह अपनी GDP का 5% रक्षा खर्च पर नहीं लगा सकता। स्पेन ने इसका विरोध करते हुए कहा कि वो 2.1% से ज्यादा खर्च नहीं करेगा। सांचेज की सरकार पहले ही भ्रष्टाचार और राजनीतिक दबाव में है, और ऐसे में खर्च बढ़ाना और मुश्किल हो गया है। फ्रांस, इटली, कनाडा और बेल्जियम जैसे देश भी इतना खर्च करने को लेकर सहज नहीं हैं।

हेग स्थित वर्ल्ड फोरम में सोमवार को NATO समिट से पहले महासचिव मार्क रुटे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की।
इस बार रूस के खिलाफ रणनीति पर चर्चा नहीं
बीते कुछ NATO समिट का केंद्र रूस रहा करता था। लेकिन इस बार ट्रम्प के साथ टकराव से बचने के लिए रूस के खिलाफ रणनीति पर चर्चा को इस समिट से हटा दिया गया। यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की को तो न्योता तो भेजा गया है, लेकिन उन्हें मेन समिट में नहीं बुलाया गया। उन्हें सिर्फ एक प्रीसम्मेलन डिनर तक सीमित रखा गया।
अमेरिका NATO के पूर्वी हिस्से से कुछ सैनिक हटाने की योजना बना रहा है, जिससे यूरोपीय देशों में चिंता और बढ़ गई है। इटली के रक्षा मंत्री ने तो यहां तक कहा कि NATO जैसी संस्था अब पहले जैसी प्रासंगिक नहीं रही। हालांकि, रुटे ने भरोसा जताया कि रूस की साझा धमकी सभी देशों को एकजुट रखेगी और अमेरिका की प्रतिबद्धता अब भी बनी हुई है।
जानते हैं कि क्या है NATO? इसकी स्थापना क्यों हुई? ट्रम्प क्यों NATO देशों की आलोचना कर रहे हैं?


सोवियत संघ पर चुनाव में धांधली के आरोप, फिर बनी NATO
सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद USSR यानी सोवियत संघ (आज के रूस) ने पोलैंड, पूर्वी जर्मनी, हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में कम्युनिस्ट सरकार बनाने में मदद की। उस पर चुनाव में हेराफेरी करने के आरोप भी लगे।
सोवियत संघ की योजना तुर्किये और ग्रीस पर दबदबा बनाने की भी थी। इन दोनों देशों पर कंट्रोल से सोवियत संघ ब्लैक सी के जरिए होने वाले दुनिया के व्यापार को कंट्रोल करना चाहता था। USSR के इन कदमों को पश्चिमी देशों ने आक्रमण की तरह माना। इन देशों को डर था कि पूरे यूरोप में कम्युनिज्म फैल जाएगा।
इससे निपटने के लिए अमेरिका ने 1947 में ट्रूमैन डॉक्ट्रिन (ट्रूमैन सिद्धांत) की घोषणा की। इसके तहत कम्युनिज्म का विरोध कर रहे देशों को समर्थन देने की बात कही। इसके साथ ही सेकंड वर्ल्ड वॉर में तबाह हो चुके यूरोपीय देशों की आर्थिक मदद और री-डेवलपमेंट के लिए अमेरिका ने मार्शल प्लान पेश किया। इसे आधिकारिक तौर पर यूरोपियन रिकवरी प्रोग्राम कहा गया।
USSR के खतरों का मुकाबला करने के लिए पश्चिमी यूरोप के देशों ने एक सुरक्षा समझौता किया। 1948 में ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्जमबर्ग ने ब्रसेल्स संधि पर साइन किए। हालांकि इन देशों को सोवियत संघ का मुकाबला करने लिए अमेरिका की जरूरत थी। इसलिए उन्होंने एक बड़े सैन्य गठबंधन की मांग की।
4 अप्रैल 1949 को अमेरिका को मिलाकर 12 देशों ने नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी पर साइन किए और NATO का गठन किया। इस समझौते के आर्टिकल 5 के मुताबिक अगर किसी एक सदस्य देश पर हमला होता है, तो सभी सदस्य देश उसकी रक्षा करेंगे।

NATO से अलग हुआ फ्रांस, 43 साल बाद फिर जुड़ा
1966 में फ्रांस ने NATO से खुद को आंशिक रूप से अलग कर लिया था। तत्कालीन राष्ट्रपति शार्ल्स डी गॉल का मानना था कि अमेरिका और ब्रिटेन इस संगठन में जरूरत से ज्यादा प्रभाव रखते हैं और इससे फ्रांस की संप्रभुता प्रभावित हो रही है।
गॉल चाहते थे कि फ्रांस की सैन्य नीति पर विदेशी नियंत्रण न हो। नतीजतन, फ्रांस ने NATO की संयुक्त सैन्य कमान से खुद को अलग कर लिया। उन्होंने देश में मौजूद NATO के मुख्यालय और अमेरिकी सैनिकों को हटा दिया। हालांकि फ्रांस संगठन का राजनीतिक सदस्य बना रहा और 2009 में राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी के शासनकाल में फ्रांस फिर से NATO का सैन्य मेंबर बन गया।
तुर्किये से विवाद के बाद ग्रीस ने NATO छोड़ा
1974 में साइप्रस में एक तख्तापलट हुआ, जिसे ग्रीस का समर्थन था। इसका मकसद साइप्रस को ग्रीस के साथ मिलाना था। इससे नाराज होकर तुर्किये ने साइप्रस पर हमला कर दिया और उसके एक तिहाई इलाके पर कब्जा कर लिया।
ग्रीस और तुर्किये दोनों NATO के मेंबर थे। ग्रीस को लगा कि NATO ने तुर्किये को रोकने की कोशिश नहीं की। ग्रीस ने नाराज होकर NATO की सैन्य गतिविधियों से खुद को अलग कर लिया, हालांकि वह भी राजनीतिक सदस्य बना रहा। छह साल बाद 1980 में अमेरिका की मध्यस्थता से ग्रीस फिर से सैन्य रूप से NATO में शामिल हो गया।
NATO देशों के बीच और कई विवाद हुए
तुर्की और अमेरिका के संबंधों में भी गंभीर तनाव पैदा हुए हैं। विशेष रूप से सीरिया संघर्ष के दौरान अमेरिका ने कुर्द लड़ाकों को समर्थन दिया, जिन्हें तुर्किये आतंकवादी संगठन मानता है। इससे दोनों देशों के बीच गहरा विवाद हुआ।
इसके अलावा तुर्किये ने रूस से S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम भी खरीदा था। यह भी दोनों देशों के बीच बड़ा मुद्दा बन गया था। अमेरिका ने इसे NATO की सिक्योरिटी के लिए खतरा बताया और जवाब में तुर्की को F-35 फाइटर जेट कार्यक्रम से बाहर कर दिया।
पूर्वी यूरोप का देश हंगरी भी कई बार पश्चिमी देशों के लिए चिंता का विषय रहा है। प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन पर लोकतंत्र और प्रेस की स्वतंत्रता को कमजोर करने के आरोप हैं। हंगरी की विदेश नीति अक्सर रूस के करीब दिखाई देती है। यूक्रेन से जुड़े कई प्रस्तावों को हंगरी ने वीटो भी किया है, जिससे NATO के फैसलों पर असर पड़ा है।

हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन (बाएं) के साथ रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (दाएं)। तस्वीर 2019 बुडापेस्ट की है।
ट्रम्प ने नाटो छोड़ने की धमकी दी
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी NATO को लेकर कई बार नाराजगी जता चुके हैं। ट्रम्प ने बार-बार कहा कि यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा के लिए पर्याप्त खर्च नहीं कर रहे और सारा बोझ अमेरिका उठा रहा है। उन्होंने यहां तक कहा कि अगर यूरोपीय देश 2% GDP रक्षा पर खर्च नहीं करते तो अमेरिका संगठन से हट भी सकता है।
डोनाल्ड ट्रम्प पिछले दो दशक से अमेरिका को नाटो से बाहर निकलने की वकालत करते रहे हैं। 2016 में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में ट्रम्प ने कहा था कि यदि रूस बाल्टिक देशों (एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया) पर हमला करता है, तो वे यह देखने के बाद ही मदद करेंगे कि उन्होंने अमेरिका के लिए अपना फर्ज पूरा किया है या नहीं।
ट्रम्प का मानना है कि यूरोपीय देश अमेरिका के खर्च पर नाटो की सुविधाएं भोग रहे हैं। 2017 में राष्ट्रपति बनने के बाद तो उन्होंने नाटो से निकलने की धमकी ही दे दी थी। ट्रम्प ने 2024 में एक इंटरव्यू में साफ कह दिया था कि जो देश अपने रक्षा बजट पर 2% से कम खर्च कर रहे हैं, अगर उन पर रूस हमला करता है तो अमेरिका उनकी मदद के लिए नहीं आएगा। उल्टे वे रूस को हमला करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे।
सुरक्षा के लिए अमेरिका के भरोसे यूरोप
सेकेंड वर्ल्ड वॉर (1939-45) के बाद यूरोप आर्थिक और सैन्य रूप से कमजोर हो गया था। दूसरी तरफ जापान पर परमाणु बम गिराने के बाद अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बनकर उभरा।
अमेरिका के पास दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना और परमाणु हथियार थे। उसने यूरोपीय देशों को परमाणु सुरक्षा मुहैया कराई। इससे यूरोपीय देशों को अपने परमाणु हथियार विकसित करने की जरूरत नहीं थी।
अमेरिका खासतौर पर रूस से परमाणु हमलों के खिलाफ यूरोपीय देशों को परमाणु सुरक्षा की गारंटी देता है। इससे यूरोपीय देशों का सैन्य खर्च कम होता है।
यूरोप में अमेरिका की मजबूत सैन्य मौजूदगी है। जर्मनी, पोलैंड और ब्रिटेन में 10 लाख से ज्यादा अमेरिकी सैनिक मौजूद हैं। अमेरिका ने यहां मिलिट्री बेस बनाए हैं और मिसाइल डिफेंस सिस्टम तैनात किए हैं। अमेरिका की मौजूदगी यूरोप को सुरक्षा का भरोसा देती है।
दूसरी तरफ यूरोप की सैन्य शक्ति सीमित है। ज्यादातर यूरोपीय देश अमेरिका की तुलना में रक्षा पर कम खर्च करते हैं। यूरोपीयन यूनियन (EU) के पास NATO जैसी संगठित सेना नहीं है। यहां तक कि जर्मनी और फ्रांस जैसे ताकतवर देश भी खुफिया जानकारी और तकनीक के लिए अमेरिका पर निर्भर है।
अगर अमेरिका गठबंधन छोड़ देता है तो यूरोप को अपनी योजनाओं को पूरा करने के लिए और खर्च करने की आवश्यकता होगी- शायद 3 प्रतिशत। उन्हें गोला-बारूद, परिवहन, ईंधन भरने वाले विमान, कमांड और नियंत्रण प्रणाली, उपग्रह, ड्रोन इत्यादि की कमी को पाटना होगा, जो वर्तमान में अमेरिका द्वारा मुहैया कराए जाते हैं।
यूके और फ्रांस जैसे नाटो सदस्य-देशों के पास 500 एटमी हथियार हैं, जबकि अकेले रूस के पास 6000 हैं। अगर अमेरिका नाटो से बाहर चला गया तो गठबंधन को अपनी न्यूक्लियर-पॉलिसी को नए सिरे से आकार देना होगा।
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