
अपनी बात को संघ के कामकाज से जोड़ते हुए भागवत ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी एक व्यक्ति की सोच पर नहीं चलता. उन्होंने कहा, “हम जो भी करते हैं, जो भी बोलते हैं वो किसी एक नेता का निर्देश नहीं, बल्कि सामूहिक विचार से उपजा निर्णय होता है.”
उन्होंने साफ किया कि संघ का काम केवल संगठन का नहीं, बल्कि समाज निर्माण का है. इसके लिए एकजुट सोच व जीवनशैली जरूरी है. भागवत ने कहा, “संघ में दिखावे से ज्यादा अहम है व्यक्ति का आंतरिक व्यक्तित्व, उसकी समाज के प्रति प्रतिबद्धता.”
संघ प्रमुख अब दो दिवसीय दौरे पर कानपुर पहुंच रहे हैं. रविवार को वे वहां कई अहम बैठकों में भाग लेंगे और दो विशेष प्रशिक्षण शिविरों का दौरा करेंगे. ये शिविर खास तौर पर 40 वर्ष या उससे कम उम्र के स्वयंसेवकों के लिए हैं, ताकि उन्हें जातिविहीन और सामाजिक रूप से तटस्थ समाज की दिशा में काम करने के लिए तैयार किया जा सके.
पहला शिविर ‘विकास वर्ग’ के नाम से नवाबगंज के दीनदयाल उपाध्याय स्कूल में चल रहा है, जिसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश से कार्यकर्ता शामिल हैं. दूसरा शिविर ‘शिक्षा वर्ग’ के नाम से समाजवादी पार्टी के पुराने गढ़ हरमोहन सिंह यादव के पैतृक गांव मेहरबान सिंह का पुरवा में हो रहा है. यहीं भागवत की मौजूदगी को लेकर राजनीतिक गलियारों में भी हलचल है, क्योंकि इस परिवार का एक हिस्सा अब भाजपा के करीब दिख रहा है.
हालांकि भागवत का मंच राजनीतिक नहीं था लेकिन उनके वक्तव्य में सामाजिक दृष्टिकोण और सांस्कृतिक दिशा की झलक साफ दिखाई दी. उन्होंने कहा, “आजादी को लेकर बहस स्वाभाविक है, लेकिन यह समझना होगा कि यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं, चेतना का परिवर्तन भी था.”
भागवत का यह बयान ऐसे समय आया है जब राजनीतिक दलों के बीच यह बहस गर्म है कि आजादी का असली नायक कौन था – गांधी, सुभाष, पटेल या भगत सिंह? लेकिन संघ प्रमुख ने इस बहस को समेटते हुए सामूहिक चेतना और विविध प्रयासों को असली योगदानकर्ता बताया.
क्या है संदेश?
मोहन भागवत का यह वक्तव्य सिर्फ इतिहास का विश्लेषण नहीं बल्कि आज के भारत के लिए भी एक अहम संदेश है कि समाज केवल नेताओं से नहीं बनता वो हर नागरिक की भागीदारी से बनता है. संघ के भीतर निर्णय कैसे लिए जाते हैं इस पर भी उन्होंने पारदर्शिता दिखाई और स्पष्ट किया कि तानाशाही नहीं टीम वर्क ही उनकी कार्यशैली की रीढ़ है.
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