
ऋषिकेश: उत्तराखंड की पारंपरिक रसोई प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर और सेहतमंद व्यंजनों से सजती है. यहां के खानपान में लोक संस्कृति, परंपरा और पोषण का अनूठा मेल देखने को मिलता है. इसी रसोई का एक अनमोल हिस्सा है बिच्छू घास से बनी सब्जी, जिसे स्थानीय लोग ‘कंडाली’ कहते हैं. सुनने में भले ही यह नाम चौंकाने वाला लगे, लेकिन बिच्छू घास की सब्जी स्वाद, सेहत और परंपरा तीनों का अनोखा संगम है. यह विशेष रूप से गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र में खाई जाती है और आज भी कई गांवों में इसे पारंपरिक व्यंजनों में प्रमुख स्थान प्राप्त है.
बिच्छू घास की सब्जी बनाने की विधि
लोकल 18 के साथ बातचीत के दौरान गरिमा ने कहा कि बिच्छू घास यानी कंडाली एक प्रकार की जंगली घास होती है, जो पहाड़ों की ढलानों और खेतों की मेड़ पर उगती है. इस पौधे की पत्तियों पर बेहद बारीक कांटे होते हैं, जो त्वचा को छूने पर जलन और झनझनाहट पैदा करते हैं. इसी कारण इसे ‘बिच्छू घास’ कहा जाता है. लेकिन जैसे-जैसे इसे पकाया जाता है, इसकी चुभन खत्म हो जाती है और यह एक स्वादिष्ट, पौष्टिक सब्जी में बदल जाती है.
लोकल 18 के साथ बातचीत के दौरान गरिमा ने कहा कि बिच्छू घास यानी कंडाली एक प्रकार की जंगली घास होती है, जो पहाड़ों की ढलानों और खेतों की मेड़ पर उगती है. इस पौधे की पत्तियों पर बेहद बारीक कांटे होते हैं, जो त्वचा को छूने पर जलन और झनझनाहट पैदा करते हैं. इसी कारण इसे ‘बिच्छू घास’ कहा जाता है. लेकिन जैसे-जैसे इसे पकाया जाता है, इसकी चुभन खत्म हो जाती है और यह एक स्वादिष्ट, पौष्टिक सब्जी में बदल जाती है.
बिच्छू घास के फायदे
बिच्छू घास को पकाने से पहले सावधानीपूर्वक तोड़ा जाता है, और हाथों की सुरक्षा के लिए दस्तानों का प्रयोग किया जाता है. इसके बाद इसे अच्छे से धोकर उबाला जाता है या कभी-कभी आग पर भून भी लिया जाता है, ताकि इसकी झनझनाहट खत्म हो जाए. फिर इसे सरसों के तेल में लहसुन, प्याज, जीरा और कुछ मसालों के साथ भूनकर सब्जी बनाई जाती है. कुछ लोग इसमें गीला भुना हुआ बेसन या गेहूं का आटा मिलाकर इसकी बनावट को गाढ़ा करते हैं.
शरीर को देती है ताकत
कंडाली की सब्जी को अधिकतर मक्का या मंडुए की रोटी के साथ परोसा जाता है. यह न केवल स्वाद में लाजवाब होती है, बल्कि शरीर को ताकत देने वाली भी मानी जाती है. इसमें आयरन, कैल्शियम, पोटैशियम और विटामिन A, C और K जैसे पोषक तत्व पाए जाते हैं. यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करती है और खासकर महिलाओं के लिए आयरन की कमी को दूर करने में उपयोगी मानी जाती है.
सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक
उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में यह सब्जी त्योहारों और पारंपरिक भोज के दौरान ज़रूर बनाई जाती है. यह सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी है. कई पहाड़ी घरों में बुजुर्ग इसे औषधीय गुणों से भरपूर मानते हैं और इसका प्रयोग सर्दियों में शरीर को गर्म रखने के लिए करते हैं.
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