
इमरजेंसी लगी…मैं डेढ़ महीने तक पकड़ में नहीं आया, अंडरग्राउंड रहकर इमरजेंसी के खिलाफ अखबार छापे, पोस्टर बांटे।
सरेंडर करते ही जेल में डाल दिया…कड़ाके की ठंड में एक कंबल ओढ़ने और एक बिछाने को मिलता था, सारी रात बैठकर निकालते थे। हमने जेल में कंबल जलाकर बगावत की तो प्रशासन की नींद खुली।
हथकड़ियां कम पड़ती तो हमें रस्सियों से बांधकर कोर्ट ले जाते थे…हमसे ज्यादा सजा हमारे परिवार ने भुगती, मेरी दो छोटी बच्चियां थीं। उन्हें पिलाने के लिए दूध नहीं होता था।
पंजाब के राज्यपाल और चंडीगढ़ के प्रशासक गुलाबचंद कटारिया ने दैनिक भास्कर से बातचीत में आपातकाल के दौरान अपनी जेल यात्रा के ऐसे कई अनुभव शेयर किए।
मूलरूप से उदयपुर के रहने वाले कटारिया राजस्थान की राजनीति में लंबे समय तक सक्रिय रहे हैं। पढ़िए उनसे बातचीत के खास अंश…
भास्कर : जिस दिन आपातकाल लगा उस दिन आप कहां थे? तब कैसा माहौल था? कटारिया : 25 जून 1975 को जैसे ही आपातकाल की घोषणा हुई तो हमें पहले ही आभास था कि पुलिस अरेस्ट करेगी, क्योंकि हम संघ में सक्रिय रूप से काम कर रहे थे। मैं विद्यार्थी परिषद में काम कर रहा था। 1974 में उदयपुर संभाग के कॉलेज और विश्वविद्यालय में चुनाव हुए उनमें 70 प्रतिशत में विद्यार्थी परिषद जीती थी। मैं एक आईडेंटिफाई नेता के रूप में स्थापित था। इसलिए मेरी तलाश पुलिस को थी। पहले दिन की गिरफ्तारी में चार साथी पकड़े गए थे। अपने साथियों से कह दिया था कि जगह बदल लीजिए तो इस वजह से हम गिरफ्तारी से बच गए। जो लोग घरों पर रह गए थे, वो वहीं से उठा लिए गए।

भास्कर : सुना है उस वक्त आपने अंडरग्राउंड रहकर सरकार विरोधी पर्चे, अखबार बांटे, फिर गिरफ्तारी कैसे हुई? कटारिया : मैंने करीब दो महीने तक अंडरग्राउंड रहकर काम किया। हम एक अखबार ‘चिंगारी’ के नाम से निकालते थे। उस वक्त डुप्लीकेट कॉपी निकालने की मशीन नहीं होती थी। हम साइक्लोस्टाइल मशीन (उस जमाने की अखबार प्रिंटिंग विधि) से कॉपी निकालकर अखबार तैयार करते। उसे बसों में पैक करके देते थे। दो-तीन दिन से ज्यादा एक स्थान पर रह नहीं सकते थे। बड़गांव में श्मशान के पास किसी का खेत था। उसमें कमरा बना हुआ था तो मैं वहां जाकर रहा। वहां अपने सहयोगियों को बुलाता था। दिन में हम प्रिंट निकालते थे। उनको किसी मैसेंजर के जरिए भिजवाते। इस बीच पुलिस मुझे तलाशते हुए मेरे घर कभी रात 2:00 बजे जाती, कभी मेरे गांव देलवाड़ा में छापा मारती। लेकिन मैं नहीं मिला।
रक्षाबंधन पर मैं घर गया था। घरवालों से मिलकर निकलते ही मैंने देखा कि मेरे साथ पढ़ा हुआ एक सीआईडी वाला मेरे पीछे लगा है। मैंने अपनी साइकिल दौड़ाई और शहर से बहुत दूर एक दोस्त के घर चला गया। दोस्त की पत्नी को डिलीवरी होने वाली थी। उसे हॉस्पिटल में भर्ती करवाया गया था। मैं उनके घर रुक गया। लेकिन पुलिस ने मेरे दोस्त को पकड़ लिया। मैंने हालात देखते हुए सरेंडर कर दिया।

मुझे थाने पर रखा गया। थानेदार मेरे गांव के पास का था, इसलिए उसने मारपीट नहीं की। सुबह उसने मुझे हवालात से निकालकर थाने के बाहर बेंच पर बैठा दिया। उस समय तिवारी अंडर ट्रेनिंग एसपी थे। वो थाने पर आए। उसने आते ही थानेदार से कहा- यह तेरे काकाजी हैं जो इसको बाहर बैठा रखा है। अंदर कर इसको। उसके बाद कोर्ट में पेश कर मुझे जेल भेज दिया। डेढ़-दो महीने अंडर ग्राउंड रहने के बाद अगस्त के अंत में अरेस्ट हुआ था मैं।
भास्कर : जेल में कई लोगों के साथ ज्यादतियां हुईं, किस तरह की दिक्कतें आती थीं, जेल यात्रा के मुश्किल पल कौनसे थे? कटारिया : शुरुआती दिनों में बहुत खराब बर्ताव हुआ। हमारे बहुत सारे साथियों को पकड़ कर पुलिस वाले बहुत पीटते थे। हमारे वरिष्ठ नेता और स्पीकर रहे शांतिलाल चपलोत आंदोलन करके आए थे। उनको उस समय के एडिशनल एसपी भरतिया ने बुरी तरह पीटा था। मेरे साथ मारपीट नहीं हुई।
जेल में सर्दियों में बड़ी दिक्कत हुई। वहां एक कंबल बिछाने और एक कंबल ओढ़ने को देते थे। पूरे सर्दी के दिनों में हमें बहुत ठंड लगती थी। एक दिन हमने तय किया कि इस तरह रोज ठंड से मरकर तो काम नहीं चलेगा। कितने दिन तक बैठकर नींद निकालेंगे। एक दिन सारी कंबलों को एक जगह करके आग लगा दी। सब कंबल जल गए। पीएन भंडारी उस वक्त उदयपुर कलेक्टर थे। वो तेजतर्रार और सख्त अफसर थे।

पूरी जेल में हलचल मची, कलेक्टर पूरी फोर्स लेकर आया और बैरक में धमकाना शुरू किया। हमने कहा कि आप धमका रहे हो अच्छी बात है लेकिन कलेक्टर साहब मैं कहता हूं आप एक रात एक कंबल में नीचे सोकर बता दीजिए। कलेक्टर के बात समझ में आ गई। उसने उसी वक्त सारी व्यवस्थाएं ठीक करने के आदेश दिए। उसके बाद ओढ़ने-बिछाने और खाने-पीने की दिक्कत नहीं आई।
जेल में हम थे, लेकिन सजा हमारा परिवार बाहर रहकर भुगत रहा था। मेरी दो छोटी बच्चियां थीं। उनके लिए दूध लाने तक के पैसे नहीं थे। कोई आता था मिलने वाला तो दे जाता था। बाद में मेरे दोनों छोटे भाई थे। एक को स्कूल और दूसरे की मंडी में नौकरी लगवाई। वो दिन भर नारियल बेचकर कुछ कमाता, उससे काम चलता था। मेरी पत्नी ने मुझे बहुत हौसला दिया। उसने कभी हिम्मत नहीं हारी। जेल में मिलने आने पर कभी अपना दुख जाहिर नहीं किया।
भास्कर : आप लोग राजनीतिक कैदी थे, पहले सख्ती के बाद हालात कैसे बदले? कटारिया : बांग्लादेश में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या हो गई थी। इस घटना ने इंदिरा गांधी को सबक दिया। उनकी समझ आ गया कि ज्यादती ठीक नहीं है। उसके बाद उन्होंने सुविधाएं देना शुरू कर दिया।
हम डीआईआर में बंद थे तो हमें कोर्ट पेशी पर ले जाते थे। हथकड़ियां कम होती थीं। ऐसे में दो-दो कैदियों को बांधकर एक लंबी लाइन में ले जाते थे। यह सब देखकर कोई हमसे हाथ मिलाना पसंद नहीं करता था। स्कूली बच्चे हमें देख चोर-चोर चिल्लाते थे। यह खराब लगता था। बाद में हमने पेशी पर आने-जाने के दौरान इंदिरा गांधी और इमरजेंसी के खिलाफ नारे लगाने शुरू किए। प्रशासन के सामने यह नई समस्या हो गई। इसके बाद कोर्ट को जेल में ही शिफ्ट करके पेशी का सिस्टम चालू किया।

इंदिरा गांधी की सरकार ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगाने की घोषणा की थी। यह मार्च 1977 तक चला था।
भास्कर : आप लोग उस वक्त चिंगारी अखबार कैसे निकालते थे, सरकार उसके क्यों पीछे पड़ी थी? कटारिया : उदयपुर के पास बड़गांव में एक श्मशान के किनारे पन्नालाल शर्मा के खेत पर बने कमरे से चिंगारी अखबार डेली निकालता था। अखबार में हम इमरजेंसी और सरकार के खिलाफ लिखते थे। आमजन को क्या तकलीफ हो रही है, किस तरह व्यवहार कर रहे हैं, घरों में घुसकर पुलिस कैसे परेशान करती है, उन सब यातनाओं का जिक्र खबरों में प्रमुखता से होता था। गांव-गांव तक हमारा अखबार पहुंचता था। प्रशासन को जब पता चला और देखा कि गांव के लोगों के हाथ में चिंगारी नाम का कोई अखबार है, उन लोगों को पकड़कर लाए। उस समय लोकतंत्र को खत्म किया गया था। अखबार में कोई न्यूज नहीं छाप सकता था। कई बड़े अखबारों का पेज ब्लैंक आता था। अगर किसी अखबार ने लिख दिया तो उसके खिलाफ गिरफ्तारी होती थी। इसी वजह से हम निशाने पर थे।
भास्कर : आपातकाल की जेल यात्रा ने आपके सियासी जीवन में कितना रोल निभाया, आप मेवाड़ इलाके में नेता के रूप में उभरे, पहला चुनाव कैसा था? कटारिया : आपातकाल खत्म होते ही हम जैसे ही जेल से छूटे, एक सम्मान समारोह रखा था। उस समारोह में जो भीड़ उमड़ी उसे देखकर लगा कि जनता में इमरजेंसी विरोधी करंट है। हमारे एक आह्वान से मैदान भर गया था। इमरजेंसी में निर्दोष लोगों की गिरफ्तारियों से लोगों में आक्रोश था।
उस वक्त सांसद का टिकट देने जाते थे तो कई नेता मना कर देते थे कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है। ऐसे में संघ के कार्यकर्ताओं ने मेरा फॉर्म भर दिया। पहली बार फॉर्म भरा तो लगा कि प्रचार कौन करेगा? काम कौन करेगा, पैसा कहां से आएगा? हमने पब्लिक मीटिंग बुलाई। उदयपुर के गांधी ग्राउंड में इतनी भीड़ आएगी, मैंने कल्पना नहीं की थी।

1980 के दौरान उदयपुर में अटल बिहारी वाजपेयी की एक सभा में मंच पर भाजपा प्रत्याशी गुलाबचंद कटारिया। (फाइल फोटो)
केवल माइक लगा दिया और मंच पर खड़े हो गए। तब मैंने कहा- चादर मंगवाओ। हम जनता के बीच में चादर फैलाकर अपील करेंगे। जिसके पास जेब में जो कुछ है सहयोग करो ताकि इस लोकतंत्र की लड़ाई को मजबूती से लड़ सकें। उस दिन लोगों की जेब से जिस तरह पैसा निकाला, तब मुझे यकीन हो गया था कि हम जंग जीतेंगे। माहौल ऐसा बना कि जनता ने खुद ही चुनाव लड़ा। लोकसभा में राजस्थान में 25 में से 24 सीट जनता पार्टी की आई। बाद में विधानसभा चुनाव में जब मैं लड़ा तो इतना जोर नहीं आया, क्योंकि तब केंद्र में सरकार बन गई थी। वातावरण बदल गया था।
भास्कर : आपातकाल में अत्याचार, ज्यादतियां करने वालों को क्या दंड मिला? आपकी सरकारों ने एक्शन क्यों नहीं लिया? कटारिया : 1977 में सरकार बनने के बाद में पद और पावर के लिए जनता पार्टी एक तरह से बिखर गई। इसके चलते चुनाव में हार हुई। 1980 में इंदिरा गांधी फिर से आकर प्रधानमंत्री बन गई। वह कालखंड तो ऐसा निकला, जिसमें जो प्राप्त किया वो बरकरार नहीं रख सके। दो-ढाई साल में हमारी सरकार बदल गई। सामान्यतः: किसी को पनीशमेंट नहीं मिला। हमारी सरकार 1977 में आई तो कुछ अफसरों के इधर से उधर ट्रांसफर किया, लेकिन किसी को सजा नहीं दी। पुलिस ने हमारे कार्यकर्ताओं, युवा आंदोलनकारियों को खूब मारा-पीटा था। ज्यादातर युवाओं के साथ खूब मारपीट हुई थी।

भास्कर : कई नेता कहते हैं कि 50 साल बाद भी आपातकाल से सबक नहीं सीखा, क्या अब भी आपातकाल का खतरा बरकरार है, कोई नेता ऐसा कर सकता है क्या? कटारिया : यह सब निर्भर करता है कि सिंहासन पर कौन है? अगर किसी के दिमाग में देश से ज्यादा पद की रुचि बन जाए तो कभी भी गलती हो सकती है। हालांकि 1977 के चुनाव के बाद सरकारें आई गईं। मगर कभी ऐसी स्थिति नहीं बनी कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना हो। राष्ट्रपति को रात में उठाकर इमरजेंसी घोषित कर दी जाए, रातों-रात गिरफ्तारियां हो जाएं। बड़े आंदोलनों को हर सरकार अपने हिसाब से दमन ही करती है। लेकिन आपातकाल में दमन की पराकाष्ठा थी। उस समय न कोई अखबार था, न कोई बोल सकता था, न भाषण दे सकता था।
भास्कर : आपातकाल से बीजेपी और आरएसएस ने सियासी तौर पर क्या सबक सीखा? कटारिया : जनता पार्टी की सरकार 1977 में बनी। इसके बाद जनसंघ से भाजपा बनी। जनता पार्टी में हमारा दोहरी सदस्यता का सवाल उठा तो हमने अलग राह पकड़ी। 1985 के चुनाव में हमारी पार्टी लगभग खत्म सी हो गई थी। केवल 2 सांसद जीते थे। क्योंकि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति पैदा हुई। उसके कारण 400 सीट कांग्रेस को मिली थी। इससे कांग्रेस को बहुत घमंड हो गया था कि उनका राज कभी जाएगा ही नहीं। इसी घमंड में आकर कांग्रेस नेता संघ की गणवेश की निकर को लकड़ी में डालकर विजय जुलूस निकालते थे। नेकरिया हाय-हाय के नारे लगाते थे। हम लोगों को यह सब देखकर खून जलता था। लेकिन कुछ कर नहीं पाते थे।

गुलाबचंद कटारिया ने कहा- संघ और बीजेपी ने मिलकर मजबूत नेटवर्क बनाया था।
इसी कारण से हमने मन में तय कर लिया कि शरीर में दम है तो उनका पाई-पाई का बदला लेना है। 1985 के चुनाव के बाद में जो हमारी वर्किंग चालू हुई, सारे देश में जिस तरह कमिटेड होकर काम में जुटे, आपने देखा होगा उसके बाद पार्टी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। बोफोर्स जैसे कांड खुलते चले गए और उसके कारण से कांग्रेस से वीपी सिंह जैसे नेता बाहर निकाले गए। संघ और बीजेपी ने नीचे तक मजबूत नेटवर्क बनाया। एक तरह से पूरे देश में हमें सपोर्ट मिलने लगा।
भास्कर : लोग कहते हैं अब आपके नेताओं में भी जमीनी मुद्दों पर संघर्ष का वो जज्बा, समर्पण नहीं रहा? कटारिया : मेरा जीवन का अनुभव कहता है कि 1990 तक हम काम करते थे देश के लिए और पार्टी के लिए। 90 के बाद हमने प्रोग्रेस तो की, लेकिन उसके बाद अपना व्यक्तिगत हित भी धीरे-धीरे मजबूत होने लग गया। एक तरह से सादगी और शुचिता हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी कमाई थी। हमें उसको जिस तरह मेंटेन रखना चाहिए था, उसमें धीरे-धीरे गिरावट आई। देश की सारी राजनीतिक पार्टियों में इस प्रकार की गिरावट होती चली गई।
पहले जितनी कर्मठता थी, जितना समर्पण था वो आज नहीं है। हम पार्टी के लिए आग में कूदने को तैयार रहते थे। पार्टी कुछ भी कहती थी तो घर वालों से पूछने की जरूरत नहीं पड़ती थी, यह कमिटमेंट था। गांवों में हम लोग जाते थे तो लोग कूड़ा फेंकते, पत्थर फेंकते थे, गांव से दौड़ा कर निकाल देते थे। लेकिन हमने कभी हार नहीं मानी। क्योंकि हमारा मानना था कि हमारी सोच-विचारधारा सही है। हमने देश के लिए इस पार्टी की रचना की है। राजगद्दी पर बैठने के लिए नहीं की है। इसके लिए हमारे समर्पित कार्यकर्ताओं के जोश और परिश्रम से हम हमेशा आगे बढ़े। हम चुनाव जरूर हारते, लेकिन जनता में हमारी इज्जत कम नहीं होती थी। लोगों का प्यार मिलता था। वह हमारे कैरेक्टर और समर्पण के कारण मिलता था।

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