रेयर अर्थ एलीमेंट्स (Rare Earth Elements – REE) आज की टेक्नोलॉजी वाली दुनिया के लिए उतने ही जरूरी हैं, जितना इंसान के लिए अनाज. इन्हें हिन्दी में ‘दुर्लभ पृथ्वी तत्व’ कहा जाता है. ये तत्व इलेक्ट्रिक गाड़ियों से लेकर मोबाइल फोन, रक्षा उपकरण, और पवन टरबाइन जैसी हाई-टेक चीजों में इस्तेमाल होते हैं. यदि इनका इस्तेमाल न किया जाए तो ये बस उपकरण बेकार हैं. और चीन इस क्षेत्र में ‘बादशाह’ है और एकछत्र राज करता है. वह दुनिया के 70 फीसदी दुर्लभ तत्वों का खनन और 90 फीसदी रिफाइनिंग करता है. यानी पूरी दुनिया इस मामले में चीन पर बहुत ज़्यादा निर्भर है.
चीन आज जिस स्थिति में है, वहां वह एकाएक नहीं पहुंचा है. 1990 के बाद से उसने इन तत्वों को रणनीतिक रूप से जरूरी माना और अपने नियमों, टेक्नोलॉजी और नीतियों को उसी हिसाब से बदला. चीन के पास दुनिया के सबसे ज़्यादा REE भंडार हैं और वहां सस्ती मजदूरी और ढीले पर्यावरण नियमों की वजह से उत्पादन बहुत सस्ता होता है. चीन के पास सस्ती बिजली उपलब्ध है, जो रिफाइनिंग जैसे ऊर्जा-गहन कामों में मदद करती है. इसके साथ ही, चीन ने टेक्नोलॉजी में भी महारत हासिल कर ली है. वहां के 39 विश्वविद्यालयों में इस बारे में पढ़ाई होती है. इसके मुकाबले दुनिया के सबसे विकसित देश अमेरिका में एक भी कोर्स नहीं है.
चीन ने कई बार इन खनिजों का राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल भी किया है. 2010 में उसने जापान को निर्यात रोक दिया था, जिससे दुनिया को समझ आ गया कि ये खनिज केवल तकनीकी चीज नहीं है, वे रणनीतिक हथियार भी बन सकते हैं.
भारत में क्या हैं मुश्किलें
दूसरी तरफ भारत और अमेरिका जैसे देशों को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. हालांकि इनके पास भी अच्छे भंडार हैं, लेकिन इन्हें निकालना और रिफाइन करना इतना आसान नहीं है. इन तत्वों को जमीन से निकालने में रेडियोधर्मी तत्वों से भी जूझना पड़ता है, जिससे पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों को खतरा होता है. भारत और अमेरिका में पर्यावरणीय नियम कड़े हैं, जिससे प्रोजेक्ट महंगे हो जाते हैं.
प्रोसेसिंग के लिए भारत भी चीन पर निर्भर
भारत के पास 6.9 मिलियन टन REE हैं, लेकिन 2024 में उसने केवल 2,900 टन का ही उत्पादन किया, यानी दुनिया का केवल 1 फीसदी. केरल के कोच्चि में मोनाजाइट रेत से ये तत्व निकलते हैं, लेकिन वहां खनन और प्रोसेसिंग की सुविधा बहुत सीमित है. इसके अलावा स्थानीय लोगों का विरोध और पर्यावरणीय चिंता भी बड़े कारण हैं. भारत की निजी कंपनियां भी इस क्षेत्र में बहुत कम सक्रिय हैं. ज़्यादातर कच्चा माल चीन भेजा जाता है, जहां उसकी रिफाइनिंग होती है. इसी कारण भारत 99 फीसदी मैग्नेट और बैटरियां चीन से मंगवाता है.
चीन की निर्भरता की वजह से भारत के इलेक्ट्रिक वाहन (EV) सेक्टर पर भी असर पड़ रहा है. कई भारतीय कंपनियां जैसे मारुति और बजाज को अब पूरी मोटर असेंबली विदेश से मंगवानी पड़ रही है, जिससे लागत बढ़ रही है. भारत सरकार ने अब इस दिशा में कुछ कदम उठाए हैं. 2024-25 के आर्थिक सर्वेक्षण में चीन पर निर्भरता को खतरे के रूप में बताया गया है और सरकार निजी कंपनियों को इस क्षेत्र में भाग लेने के लिए प्रोत्साहन दे रही है, लेकिन नतीजे आने में अभी समय लगेगा.
अमेरिका में भी काफी कम उत्पादन
अमेरिका में भी हालात ऐसे ही हैं. वहां केवल माउंटेन पास नाम की एक खदान है जो 2024 में 45,000 टन का उत्पादन कर सकी. फिर भी अमेरिका अपनी ज़रूरत का 70% से ज्यादा हिस्सा चीन से ही मंगवाता है. अमेरिका पहले इस क्षेत्र में आगे था, लेकिन चीन की सस्ती लागत और ढीले पर्यावरण नियमों ने अमेरिका को पीछे छोड़ दिया. अमेरिका के पास अब भी रिफाइनिंग की पर्याप्त सुविधा नहीं है और टेक्नोलॉजी की भी कमी है. कुछ नए रिफाइनिंग प्लांट्स शुरू जरूर हो रहे हैं, जैसे टेक्सास में MP मैटेरियल्स की सुविधा, लेकिन उसका उत्पादन चीन के मुकाबले बहुत कम होगा.
टेक्नोलॉजी भी बेच नहीं रहा चीन
चीन ने तो अब यहां तक कर दिया है कि वह अपनी रिफाइनिंग टेक्नोलॉजी दूसरे देशों को न बेचे, जिससे और देशों की तरक्की और रुक जाए. अमेरिका और भारत दोनों को अब अपने देश में निवेश बढ़ाने, टेक्नोलॉजी लाने और पर्यावरणीय नियमों का बेहतर समाधान निकालने की जरूरत है. इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया और वियतनाम जैसे देशों से साझेदारी और रीसाइक्लिंग को बढ़ावा देना भी जरूरी है.
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