आपको बता दें कि इन तीनों के काम में बहुत बड़ा अंतर है. इनमें बस एक ही समानता है कि ये लोन देते हैं. लेकिन कब देंगे, किसे देंगे और क्यों देंगे यह तय करने का तीनों का तरीका अलग है. आज हम आपको इसी अंतर के बारे में विस्तार से बताएंगे.
ADB क्या करता है और भारत इसे क्यों चुनता है
Asian Development Bank का हेडक्वार्टर फिलीपींस के मनीला में है और यह केवल एशिया पैसिफिक देशों के लिए बनाया गया था. यानी यह अंतरराष्ट्रीय बैंक तो है लेकिन एक खास रीजन के राष्ट्रों के लिए. भारत इस बैंक का फाउंडिंग मेंबर है, इसलिए यहां से जो लोन मिलता है, वह न सिर्फ सस्ता होता है बल्कि इसकी टर्म्स भी सबसे आसान होती हैं. ब्याज आमतौर पर 1.5 से 3 प्रतिशत तक रहता है और भुगतान अवधि 25 से 40 साल तक खिंच जाती है. कई बार इसमें 5 से 8 साल तक का ग्रेस पीरियड भी मिलता है.
शर्तें
ADB खासतौर पर सड़क, रेलवे कनेक्टिविटी, मेट्रो, फ्रेट कॉरिडोर, वाटर मैनेजमेंट, एनर्जी इन्फ्रास्ट्रक्चर और क्लाइमेट फोकस्ड प्रोजेक्ट्स में पैसा देता है. यानी इनका काम यह देखना नहीं होता कि देश की आर्थिक नीतियां कैसी हैं. इनका फोकस सिर्फ यह है कि प्रोजेक्ट मजबूत है या नहीं. यही वजह है कि भारत के लिए ADB लोन हमेशा फायदेमंद सौदा माना जाता है. 800 मिलियन डॉलर वाला ताजा लोन भी इसी श्रेणी का है. इसमें सरकार लॉजिस्टिक्स अपग्रेड, रेल कॉरिडोर मॉडर्नाइजेशन और क्लाइमेट रेजिलिएंट इन्फ्रा पर खर्च करेगी.
World Bank आखिर क्यों ज्यादा चर्चित है
World Bank वाशिंगटन में स्थित है और यह दो अलग हिस्सों के माध्यम से काम करता है. पहला IBRD (इंटरनेशनल बैंक फोर रीकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट), जो भारत जैसे मिडिल इनकम देशों को लोन देता है. दूसरा IDA (इंटरनेशनल डेवलपमेंट एसोसिएशन), जो दुनिया के सबसे गरीब देशों को लगभग जीरो प्रतिशत ब्याज पर पैसा देता है. भारत पहले IDA से भी लोन लेता था, लेकिन अब हमारी इकोनॉमी उस श्रेणी से ऊपर उठ चुकी है.

शर्तें
World Bank का ब्याज ADB की तुलना में हमेशा ज्यादा रहता है, लगभग 4 से 6 प्रतिशत तक. इसकी लोन अवधि भी लंबी होती है, मगर इसके साथ कुछ नीतिगत शर्तें आती हैं. कभी यह सब्सिडी सुधार की बात करता है, कभी अर्बन गवर्नेंस सुधार की, कभी फिस्कल मैनेजमेंट पर दबाव डालता है. यही वजह है कि World Bank का रोल डेवलपमेंट पार्टनर और नीतिगत एडवाइजर दोनों का होता है. 2025 में भारत ने World Bank से 2.2 बिलियन डॉलर लिए. यह पैसा अर्बन डेवलपमेंट, रेलवे अपग्रेड, हेल्थ सिस्टम और स्टेट गवर्नेंस सुधार में लग रहा है.
IMF है खतरे की घंटी
IMF यानी International Monetary Fund को एक तरह से इमरजेंसी डॉक्टर कहा जाता है. यह आमतौर पर तभी सामने आता है जब कोई देश आर्थिक संकट में घिर चुका हो. जैसे जब विदेशी मुद्रा खत्म होने लगे, रुपया या स्थानीय मुद्रा अचानक डूब जाए, महंगाई बेकाबू हो जाए या देश का बैलेंस ऑफ पेमेंट पूरी तरह बिगड़ जाए.

शर्तें
IMF का ब्याज भले कम दिखे, लेकिन इसकी शर्तें सबसे सख्त होती हैं. यह सरकार से पेट्रोल डीजल सब्सिडी हटाने, बिजली के दाम बढ़ाने, सरकारी खर्च में कटौती करने और आयात निर्यात नीति में बड़े बदलाव करने की मांग कर सकता है. यही वजह है कि IMF को लोग आर्थिक कठिनाई की दवा कहते हैं, जो असरदार होती है लेकिन कड़वी भी. भारत ने IMF से आखिरी बार 1991 में लोन लिया था. तब भारत बहुत गहरे संकट में था और विदेशी मुद्रा रिजर्व सिर्फ कुछ हफ्तों के इम्पोर्ट के बराबर रह गया था. आज हालत बिलकुल उलट है.
तीनों के बीच सबसे सरल फर्क
अगर इसे एकदम आसान भाषा में समझना चाहें तो फर्क इस तरह बैठता है. अगर आपको सड़क, मेट्रो, रेलवे, ट्रांसपोर्ट नेटवर्क या सोलर प्रोजेक्ट के लिए पैसा चाहिए तो ADB सही जगह है. अगर आप स्कूल, अस्पताल, गरीबी उन्मूलन, गवर्नेंस मॉडल, अर्बन रिफॉर्म्स या बड़ी नीतिगत सुधार वाली स्कीम चला रहे हैं, तो World Bank का लोन ज्यादा कारगर होता है. अगर आपका देश आर्थिक संकट में है और रुपया या विदेशी मुद्रा डगमगा रहा है तो IMF अंतिम उम्मीद होता है.
भारत अभी किस पोजिशन पर खड़ा है
2025 में भारत की आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत है कि हमें IMF की जरूरत ही नहीं है. World Bank हमें नीतिगत सपोर्ट के साथ बड़े प्रोजेक्ट्स पर पैसा दे रहा है. ADB हमें सबसे सस्ता और लंबी अवधि वाला डेवलपमेंट लोन देता है. सरकार इन दोनों स्रोतों का उपयोग करके देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर और अर्बन सिस्टम को तेजी से अपग्रेड कर रही है. इसलिए जब कोई कहता है कि भारत कर्ज में डूब रहा है, तो असल तस्वीर यह है कि भारत वह कर्ज ले रहा है जो लंबे समय के लिए है, कम ब्याज पर है और सीधे देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत कर रहा है. यह वही कर्ज है जो भविष्य में हमारी ग्रोथ को और तेज करेगा.


