
आज दिल्ली की गर्मियां और लू के थपेड़े ब्रिटिश काल से कुछ अलग नहीं हैं. अंग्रेज अफसर, उनकी पत्नियां और बाकी यूरोपीय लोग इस शहर की भीषण गर्मी से परेशान रहते थे. कई ब्रिटिश डायरियों, यात्रा वृतांतों और दस्तावेजों में दिल्ली की गर्मी के बारे में ऐसा लिखा गया है कि पढ़ने पर भी पसीना आ जाए.
शहर वीरान हो जाता था
मई-जून की दोपहर में दिल्ली में ऐसा सन्नाटा छा जाता था, जैसे शहर वीरान हो गया हो. अंग्रेज अफसर ‘ब्लडी इनसफररेबल हीट’ (असहनीय गर्मी) शब्दों का इस्तेमाल करते थे. (News18 AI)
कौए तक छांव में चले जाते थे
कैप्टन जॉन ब्रिग्स ने 1820 में लिखा,
“दिल्ली की लू ऐसी होती है, जैसे भट्टी की गर्म हवा. दोपहर में ना आदमी दिखते हैं, न जानवर. बाजार बंद हो जाते हैं और कौए तक छांव में चले जाते हैं.”
सड़कों पर पसर जाता था सन्नाटा
दफ्तरों में रखी जाती थीं बर्फ की सिल्लियां
अंग्रेजों ने गर्मी से बचने के लिए कई जुगाड़ किए. उनके बंगलों और क्लबों में खस की टट्टियां (पर्दे) लटकाए जाते थे, जिन्हें ठंडे पानी से भिगोया जाता था ताकि गर्म हवा कमरे में न घुसे. बड़े दफ्तरों में दिनभर बर्फ की सिल्लियां रखी जाती थीं. शाम होते-होते ब्रिटिश क्लबों में जमावड़ा होता. जिन-टॉनिक और बर्फ के टुकड़ों के साथ दिनभर की गर्मी की चर्चा होती.
दिल्ली की गर्मी से बचने का सबसे बड़ा उपाय था, हिल स्टेशनों का रुख करना. अंग्रेज अफसर मार्च के बाद ही शिमला, मसूरी, नैनीताल जैसे ठंडी जगहों पर चले जाते थे. (News18 AI)
चेहरा तवे पर रखे आटे की तरह जलने लगता था
लेडी विलिंगडन, जो 1935 में वायसराय की पत्नी थीं, उन्होंने तब लिखा,
“कोई भी अंग्रेज महिला सुबह 10 बजे के बाद बाहर नहीं निकलती. लू ऐसी चलती है कि छाता भी उड़ जाए. चेहरा तवे पर रखे आटे की तरह जलने लगे.”
अंग्रेज हिल स्टेशन की ओर रुख कर जाते थे
लार्ड हार्डिंग ने लिखा, दिल्ली की गर्मी आतंक है
लॉर्ड हार्डिंग, जो 1912 में वायसराय बने थे, उन्होंने राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट करते समय लिखा, “दिल्ली की गर्मी एक आतंक है. कोई भी व्यक्ति, चाहे कितना भी बहादुर क्यों न हो, इस लू और गर्मी के प्रकोप से अछूता नहीं रह सकता.”
क्या था आग उगलती गर्मी का इलाज
फिर दोपहर में अंग्रेज ‘सिएस्ता’ लेते थे
दिल्ली में गर्मी के मौसम में अंग्रेज अपने घरों में दोपहर को ‘सिएस्ता’ यानी अनिवार्य नींद लेते थे. हर खिड़की-दरवाजे बंद. खस की टट्टियां, पंखे और बर्फ की व्यवस्था. दोपहर में सरकारी दफ्तर भी लगभग खाली रहते. ब्रिटिश डायरियों में दर्ज है कि दोपहर 12 से 4 बजे तक दिल्ली मौत की तरह खामोश हो जाती थी.
सड़कें धधकती रहतीं, लोग घरों में दुबक जाते
विलियम डैलरिम्पल ने अपनी किताब ‘सिटी ऑफ जिन्स’ में लिखा,
“दिल्ली की गर्मी ऐसी होती थी कि दोपहर होते-होते शहर वीरान हो जाता. बस कभी-कभार किसी बैलगाड़ी की आवाज़ या किसी फकीर की पुकार सुनाई देती. लोग अपने घरों में दुबक जाते और सड़कें धधकती रहतीं.”
पत्थर भी आग उगलने लगते
गर्मी में दोपहर का लंच गायब हो जाता था
अंग्रेज अफसर और उनकी पत्नियां, जो इंग्लैंड की नमी भरी ठंडक से आए थे, दिल्ली और उत्तरी भारत की भयंकर गर्मी से अक्सर परेशान रहते थे. ब्रिटिश परिवार सुबह जल्दी उठ जाते थे, नाश्ता जल्दी कर लेते थे, क्योंकि दिन चढ़ने के साथ गर्मी असहनीय हो जाती थी.
बर्फ की सिल्ली मंगाकर ड्रिंक्स ठंडी की जाती थीं. शाम को चाय होती थी. रात को थोड़ा औपचारिक भोजन होता था. गर्मी इतनी भीषण होती थी कि दोपहर में ठंडी चीज़ें — लेमन स्क्वैश, नींबू पानी, बेल का शर्बत, आम पन्ना — खूब पसंद किए जाते. अंग्रेज़ों ने गर्मी में देसी शीतल पेय भी अपनाए.
अब भी दिल्ली वैसी ही धधकती है
आज भी दिल्ली की गर्मियां कुछ अलग नहीं. फर्क बस इतना है कि अब एयर कंडीशनर और कूलर आ गए हैं. मगर मई-जून में दिल्ली की दोपहरें आज भी वैसी ही धधकती हैं, जैसी सौ-दो सौ साल पहले थीं. अंग्रेजों की डायरियां और दस्तावेज इस बात की गवाही देते हैं कि दिल्ली की गर्मी ने इतिहास में भी अपनी जगह बना रखी है.
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