
मुंबई : सर्दियों की एक सुबह, 29 दिसंबर 1942 को अमृतसर की गलियों में एक बच्चे की किलकारी गूंजी, नाम रखा गया जतिन खन्ना. उस मासूम चेहरे में शायद किसी ने नहीं देखा था कि ये वही शख्स बनेगा, जिसे आने वाले समय में हिंदी सिनेमा ‘पहला सुपरस्टार’ कहेगा. जतिन के दिल में फिल्मों का सपना पल रहा था और एक दिन उन्होंने हिम्मत दिखाई. एक टैलेंट हंट प्रतियोगिता में हिस्सा लिया, जहां 10,000 प्रतियोगियों में वो चुने गए पहले नंबर पर. यहीं से जन्म हुआ राजेश खन्ना का.
24 की उम्र में फिल्म ‘आखिरी खत’ (1966) से उन्होंने बॉलीवुड में कदम रखा. लेकिन असली धमाका हुआ 1969 में जब ‘आराधना’ आई. इस फिल्म ने उन्हें सीधे-सुपरस्टार बना दिया. इसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ, वो थमा नहीं- ‘इत्तेफाक’, ‘बंधन’, ‘खामोशी’, ‘सफर’, ‘द ट्रेन’, ‘सच्चा झूठा’, ‘कटी पतंग’, ‘अंदाज’, ‘आनंद’, ‘दुश्मन’, और ‘अमर प्रेम’ जैसी 17 फिल्में लगातार हिट रहीं. लोगों के लिए काका अब सिर्फ एक्टर नहीं, एक इमोशन बन गए थे.
परफेक्शन के बादल में आई उदासी की बारिश
हर ऊंचाई के पीछे एक गहरी खाई होती है और काका की जिंदगी भी इससे अछूती नहीं रही. 1976 के बाद उनकी किस्मत ने करवट ली. ‘महबूबा’, ‘अनुरोध’, ‘कर्म’, ‘त्याग’, ‘चलता पुर्जा’ — एक के बाद एक सात फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरीं. ये वही शख्स था जिसे देखने के लिए सिनेमा हॉल्स के बाहर लड़कियां खून से खत लिखती थीं, लेकिन अब वही स्क्रीन पर थका हुआ दिखने लगा था.
जिंदगी खत्म करना चाहते थे अभिनेता
ये सिर्फ फ्लॉप फिल्में नहीं थीं, ये राजेश खन्ना के आत्मविश्वास पर गहरी चोट थीं. किताब ‘Rajesh Khanna: The Untold Story of India’s First Superstar’ में यासिर उस्मान लिखते हैं कि इस दौर में काका डिप्रेशन में चले गए थे. उन्होंने यहां तक सोच लिया था कि वो समंदर में डूबकर अपनी जिंदगी खत्म कर लेंगे. लेकिन, जैसे पर्दे पर उनके किरदार हमेशा उभरकर आते थे, वैसे ही असल जिंदगी में भी उन्होंने खुद को फिर से संभाला.
राजेश खन्ना का जीवन सिर्फ स्टारडम की कहानियों से भरा नहीं है, उसमें अकेलेपन की गूंज, अवसाद की गहराई और फिर से उठ खड़े होने की ताकत भी है. वो एक कलाकार नहीं, एक युग थे – जिन्होंने सिनेमा के परदे को सिर्फ अपने अभिनय से नहीं, अपनी जिंदगी की सच्चाइयों से भी चमकाया.
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