पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने 12 वर्षीय एक लड़के को ऑस्ट्रेलिया में रह रही उसकी मां के पास से “मुक्त” कराने के लिए दायर याचिका को खारिज कर दिया है। न्यायालय ने कहा कि किसी माता-पिता को अपने ही बच्चे के अपहरण के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि दोनों ही माता-पिता बच्चे के समान प्राकृतिक अभिभावक होते हैं। अदालत ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 361 और हिंदू अल्पसंख्यक एवं संरक्षण अधिनियम, 1956 की धारा 6 का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि अपहरण की परिभाषा में यह आवश्यक है कि नाबालिग बच्चे को “वैध अभिभावक” के संरक्षण से दूर ले जाया जाए और यदि दोनों माता-पिता ही प्राकृतिक अभिभावक हैं, तो एक अभिभावक द्वारा बच्चे को दूसरे अभिभावक के पास ले जाना अपहरण नहीं माना जा सकता है।
क्या था मामला?
यह मामला गुरुग्राम निवासी एक चाचा द्वारा दायर की गई याचिका से जुड़ा हुआ था, जिसमें उन्होंने अपनी भाभी (बच्चे की मां) पर आरोप लगाया था कि उसने उनके नाबालिग भतीजे को अवैध रूप से अपने कब्जे में ले लिया है। याचिकाकर्ता ने अदालत से अनुरोध किया था कि वह राज्य सरकार को निर्देश दे कि वह बच्चे को उसकी मां के अवैध संरक्षण से मुक्त कराए। याचिकाकर्ता का कहना था कि 24 अप्रैल को बच्चे के पिता, जो कि बेल्जियम में एक सम्मेलन में गए थे, के दौरान उसकी मां ने उनके कार्यालय में घुसकर बच्चे का पासपोर्ट चुराया और तड़के बच्चे को उठा कर अपने साथ ले गई।
अदालत का रुख
अदालत ने इस मामले की गंभीरता से सुनवाई की और याचिकाकर्ता के तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि दोनों माता-पिता ही बच्चे के समान प्राकृतिक अभिभावक हैं। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 361 और हिंदू अल्पसंख्यक एवं संरक्षण अधिनियम, 1956 की धारा 6 के तहत अपहरण की परिभाषा में यदि किसी बच्चे को “वैध अभिभावक” के संरक्षण से बाहर नहीं किया जाता, तो वह अपहरण नहीं माना जाता।
इसके अलावा, अदालत ने यह भी कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि माता-पिता के बीच किसी तरह का विवाद या असहमति होने पर भी बच्चे के प्रति दोनों का समान अधिकार और संरक्षण है और किसी एक अभिभावक द्वारा दूसरे से बच्चे को लेकर विवाद उत्पन्न करना अपहरण की श्रेणी में नहीं आता। (इनपुट- भााषा)
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