और बात सिर्फ कार्नी की नहीं है. कनाडा के विपक्षी नेता पियरे पॉइलिवरे ने भी हमले को ‘भयावह’ बताया. उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता की बात कही. लेकिन उनका भी बयान भारत को दरकिनार कर गया. कनाडा के इन दोनों नेताओं की प्रतिक्रियाओं में एक अजीब किस्म की ‘भयभीत तटस्थता’ है. जैसे आतंकवाद का विरोध करना तो ठीक है, मगर भारत के साथ खड़ा होना उन्हें अल्पसंख्यक वोटबैंक के खिलाफ लगता हो. यह वही कनाडा है जो खालिस्तानियों को राजनीतिक स्पेस देता है, और अब जिहादी हिंसा पर चुपचाप रहता है.
ब्रिटेन के बयान में भी वो आंच नहीं!
ब्रिटेन के पीएम कीर स्टार्मर ने पीएम मोदी से बात की. फोन किया, दुख जताया, निंदा की. बयान भी जारी हुआ. मगर गौर से पढ़िए. इसमें भी आतंकवाद की नर्सरी पाकिस्तान का नाम नदारद रहा. इस बर्बरता की जड़ पर सवाल नहीं उठाया गया. जेहाद की जहरीली सोच पर चुप्पी साध ली गई. एक ऐसी चुप्पी जो अनजाने में नहीं, जानबूझकर रखी जाती है.
मजहबी नरसंहार को मजहबी नरसंहार कहने में हिचक क्यों?
भारत की जमीन पर हमला हुआ. धर्म के नाम पर लोगों को मारा गया. हिंदू, ईसाई और दूसरे गैर-मुस्लिम पर्यटकों को ‘कलमा’ सुनाने की शर्त पर ज़िंदा छोड़ा गया या मार दिया गया. ये कोई आम आतंकवादी हमला नहीं था, ये एक साफ-साफ मजहबी नरसंहार था. फिर इस हमले की निंदा करने वाले नेता पाकिस्तान का नाम लेने से क्यों हिचकते हैं? क्यों भारत का नाम तक नहीं लेते? क्या इस्लामी वोटबैंक की राजनीति इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी है कि अब नैतिकता भी उससे डरने लगी है?
भारत को बिना लाग-लपेट वाले दोस्त चाहिए
कीर स्टार्मर हों या मार्क कार्नी, इन दोनों की प्रतिक्रियाएं हमें एक बड़ी सच्चाई दिखाती हैं. पश्चिमी लोकतंत्र अब आतंकवाद के खिलाफ नहीं, बल्कि राजनीतिक माइलेज के साथ खड़े हैं. उनकी भाषा अब बस निंदा की हो गई है. न अपराधी का नाम, न पीड़ित की पहचान… सब कुछ बस इतना कह देने से खत्म हो जाता है कि ‘हमें दुख है.’
भारत अब इस खोखली संवेदना से संतुष्ट नहीं हो सकता. हमें निंदा नहीं, निष्पक्षता चाहिए. हमें बयान नहीं, पाकिस्तान के खिलाफ एक स्पष्ट वैश्विक स्टैंड चाहिए. जो देश मानवाधिकारों की दुहाई देते हैं, वे जब कश्मीरी हिंदुओं और दूसरे अल्पसंख्यकों की हत्या पर चुप्पी साधते हैं, तो उनका दोहरा चरित्र और भी नंगा हो जाता है.
अगर ऐसा हमला इजरायल या अमेरिका में हुआ होता, तो क्या प्रतिक्रिया इतनी ढकी-छुपी होती? क्या दुनिया उतनी ही ‘नम्र’ भाषा में बात करती? क्या पाकिस्तान को लेकर वही कूटनीतिक संयम दिखाया जाता? नहीं. तब शायद टॉमहॉक मिसाइलें पहले आतीं, ट्वीट बाद में.
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