Opinion: अरुण नेहरू, जिन्होंने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के लिए किया था राजी!

नई दिल्ली. वह 1986 का साल था, जब बोफोर्स तोप सौदे में ली गई कथित दलाली के प्रकरण की गूंज पूरे देश में सुनाई दे रही थी. प्रधानमंत्री राजीव गांधी अपने ही एक पूर्व सहयोगी वीपी सिंह के जबरदस्त निशाने पर थे. इस वक्त राजीव को जिस शख्स की सबसे ज्यादा दरकार थी, उसी ने उन्हें छोड़कर उनके प्रतिद्वंद्वी वीपी सिंह से हाथ मिला लिए थे. ये और कोई नहीं, उनकी सरकार के प्रभावशाली मंत्रियों में से एक और चचेरे भाई अरुण नेहरू थे.

मोतीलाल नेहरू के बड़े भाई नंदलाल के प्रपौत्र अरुण नेहरू के कई दशकों तक इंदिरा गांधी परिवार के साथ करीबी संबंध रहे. उम्र में राजीव गांधी के समकक्ष रहे (दोनों का जन्म वर्ष एक ही 1944 था) अरुण को राजनीति में लाने का श्रेय राजीव को नहीं (जैसी की धारणा रही है), बल्कि उनकी मां श्रीमती इंदिरा गांधी को जाता है. 1980 के लोकसभा चुनावों में जब इंदिरा गांधी मेडक और रायबरेली दोनों सीटों से जीत गईं, तो उन्होंने रायबरेली सीट छोड़ दी. अरुण नेहरू उस समय कॉर्पोरेट सेक्टर में एक सफल पेशेवर बतौर काम कर रहे थे. इंदिरा ने उनसे वह पेशा छोड़कर राजनीति में आने और रायबरेली से चुनाव लड़ने को कहा. अरुण इसके लिए राजी हो गए. वे इस सीट से लगातार दो बार (1980 और 1984) चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे.

राजीव गांधी की संसदीय पारी तो अरुण नेहरू के संसद में पहुंचने के करीब एक साल बाद 1981 में शुरू हुई और इसका थोड़ा बहुत श्रेय स्वयं अरुण नेहरू को दिया जा सकता है. इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय की मृत्यु के बाद उनकी खाली जगह (अमेठी लोकसभा सीट) को भरने के लिए उनकी विधवा मेनका गांधी और राजीव गांधी के बीच खासी खींचतान चल रही थी. तब अरुण नेहरू ही थे, जो शिवराज पाटिल के साथ मिलकर पार्टी के करीब 50 सांसदों को लेकर इंदिरा गांधी के पास पहुंचे थे. उन्होंने उनसे संजय की संसदीय विरासत को राजीव को देने का आग्रह किया था.

राजीव को पीएम बनाने में निभाई थी भूमिका!
इंदिरा गांधी की हत्या के समय राजीव गांधी पश्चिम बंगाल के दौरे पर थे. खबर सुनते ही वे दिल्ली पहुंचे. उस समय इस बात को लेकर पार्टी के भीतर दुविधा की स्थिति बनी हुई थी कि प्रधानमंत्री किसे बनना चाहिए. तब प्रणब मुखर्जी तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार में नंबर दो की हैसियत रखते थे और उन्होंने दो बार अंतरिम प्रधानमंत्री बने गुलजारीलाल नंदा का उदाहरण दिया था (नंदा ने पहली बार जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद और फिर लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद यह जिम्मेदारी संभाली थी.) लेकिन अरुण नेहरू ने राजीव से कहा कि ‘अंतरिम प्रधानमंत्री बनाने का कोई सवाल ही नहीं उठता है.’ हालांकि सालों बाद जब इन दोनों चचेरे भाइयों के बीच मतभेद काफी गहरा चुके थे, तब अरुण नेहरू ने एक रिपोर्टर से कहा था, ‘राजीव उस समय कुर्सी संभालने के लिए बेताब थे… राजीव ने मुझसे कहा था कि वे अंतरिम प्रधानमंत्री नहीं चाहते, बल्कि खुद प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेना चाहते हैं.’

राहुल-प्रियंका को पहुंचाया था तेजी बच्चन के घर
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद का एक प्रसंग यह भी दिखाता है कि अरुण नेहरू गांधी परिवार के प्रति कितने सजग और चिंतित थे. इंदिरा की हत्या के कुछ ही देर बाद अरुण नेहरू जब एम्स पहुंचे तो उन्होंने देखा कि सोनिया अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर बेहद घबराई हुई हैं. वे तुरंत 1 सफदरजंग रोड स्थित इंदिरा गांधी के आवास के लिए रवाना हुए. वहां यह जानकर हैरान रह गए कि राहुल और प्रियंका की सुरक्षा के लिए एक भी सुरक्षाकर्मी मौजूद नहीं था. हालांकि इस समय तक राहुल और प्रियंका स्कूल से घर लौटे नहीं थे. इसलिए उन्होंने दोनों बच्चों को स्कूल से लिया और बॉलीवुड स्टार अमिताभ की मां तेजी बच्चन के गुलमोहर पार्क स्थित घर पहुंचाया.

जब प्रियंका ने कहा था ‘विश्वासघाती’
यह 1999 की बात है, जब उप्र की रायबरेली सीट पर लोकसभा चुनाव होने वाला था. अरुण नेहरू ने नेहरू-गांधी परिवार का गढ़ मानी जाने वाली रायबरेली सीट से भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया. प्रियंका को याद था कि कैसे अरुण नेहरू ने उनके पिता को छोड़कर विरोधियों से हाथ मिला लिए थे. उस दौरान प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस उम्मीदवार और परिवार के भरोसेमंद नेता कैप्टन सतीश शर्मा के लिए प्रचार कर रही थीं. उन्होंने अपने चाचा अरुण नेहरू के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर मोर्चा खोल दिया. उस समय उन्होंने एक रैली में मतदाताओं को संबोधित करते हुए कहा था: ‘मुझे आपसे एक शिकायत है. मुझे जवाब दीजिए, एक आदमी जिसने मंत्रालय में रहते हुए मेरे पिता के साथ विश्वासघात किया, जिसने एक भाई की पीठ में छुरा घोंपा, आपने उसे यहां कैसे आने दिया? उसकी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’ अरुण नेहरू इस चुनाव में चौथे स्थान पर रहे थे.

अंतिम दिनों में खत्म हो गई थी खटास…
अरुण नेहरू ने जब 25 जुलाई 2013 को अंतिम सांस ली तो निश्चित ही उनकी आत्मा को इस बात का सुकून रहा होगा कि जिस परिवार के साथ उनके खून के रिश्ते रहे, उसके साथ के अपने तमाम सियासी मतभेदों पर वे यहीं मट्‌टी डालकर जा रहे थे. वैसे दोनों परिवारों के बीच सुलह की प्रक्रिया तभी शुरू हो गई थी, जब सोनिया गांधी और उनके बच्चे अस्पताल में भर्ती अरुण नेहरू से मिलने पहुंचे थे. लगभग उसी समय इस लेखक ने उनसे परिवारों के बीच मेल-मिलाप के बारे में पूछा था. इस पर गांधी परिवार ने संक्षेप में इतना भर ही कहा था, ‘हम एक परिवार हैं और एक परिवार ही रहेंगे.’

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26 जुलाई 2013 को जब सोनिया, राहुल, प्रियंका और रॉबर्ट वाड्रा दिल्ली में अरुण नेहरू के अंतिम संस्कार में शामिल हुए तो ऐसा लगा कि करीब एक चौथाई सदी की कड़वाहट को भुलाकर इन दोनों परिवारों के बीच की दूरियां नजदीकियों में बदल गई हैं.
(अरुण नेहरू जयंती: 24 अप्रैल पर विशेष)

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