बार एंड बेंच में इसी मसले पर अंजू थॉमस और पानिष्ठा भट ने एक विस्तृत आर्टिकल लिखा और इस मामले पर विस्तार से प्रकाश डाला. दरअसल, टाटा ग्रुप के दिवंगत चेयरमैन रतन टाटा की करीबी सहयोगी मोहिनी मोहन दत्ता ने भी अदालत का दरवाजा खटखटाया. उन्होंने वसीयत के तहत अपने हिस्से को लेकर स्पष्टीकरण मांगा है. यह बात इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि रतन टाटा के अपने वसीयतनामा में एक ‘नो-कॉन्टेस्ट क्लॉज’ शामिल है. मतलब विरोध न करने की शर्त. इसके अनुसार यदि कोई लाभार्थी वसीयत को चुनौती देता है, तो उसे अपने हिस्से से हाथ धोना पड़ सकता है. दत्ता द्वारा मांगा गया यह स्पष्टीकरण भारतीय कानून में ऐसी शर्तों की वैधता और प्रवर्तनीयता पर सवाल खड़ा करता है. साथ ही, यह सवाल भी उठता है कि क्या वसीयत की व्याख्या मांगना भी एक कानूनी चुनौती माना जाएगा, जिससे वसीयत में दी गई जब्ती की शर्त लागू हो जाएगी?
क्यों डाला जाता है वसीयत में ‘नो-कॉन्टेस्ट क्लॉज’?
वसीयतनामा किसी व्यक्ति की अंतिम इच्छा का दस्तावेज होता है, जिसमें उनकी संपत्ति के बंटवारे का खाका होता है. लेकिन अक्सर लाभार्थी वसीयत की वैधता को कोर्ट में चुनौती दे देते हैं, जिससे लंबी कानूनी लड़ाई शुरू हो जाती है. स्वाभाविक रूप से, वसीयतकर्ता चाहता है कि उसकी संपत्ति बिना किसी विवाद के उसके चुने हुए लाभार्थियों को मिले. इसीलिए, कई वसीयतकर्ता ‘नो-कॉन्टेस्ट क्लॉज’ जोड़ते हैं, ताकि लाभार्थी वसीयत को चुनौती देने से हिचकें.
‘नो-कॉन्टेस्ट क्लॉज’ को ‘इन टेरोरम क्लॉज’ भी कहा जाता है. इसका मकसद लाभार्थियों को डराना होता है, अगर वे वसीयत को चुनौती देंगे तो उनका हिस्सा छिन सकता है. यह शर्त वसीयतकर्ता को यह आश्वस्त करने में मदद करती है कि उसकी अंतिम इच्छा के खिलाफ कोई मुकदमेबाजी नहीं होगी. इसका मुख्य उद्देश्य वसीयतकर्ता की इच्छा जैसी है वैसी ही पूरा करना, और बेवजह के मुकदमों को रोकना होता है.
भारत में कानूनी स्थिति
पश्चिमी देशों के मुकाबले भारत में ‘नो-कॉन्टेस्ट क्लॉज’ का चलन कम है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि लोग इसके बारे में बिलकुल जानते ही नहीं. रतन टाटा की मृत्यु के बाद इस बारे में काफी लिखा और छापा गया है, जिससे ज्यादा लोगों को इसके बारे में पता चला है. भारत में उत्तराधिकार के मामले भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 और शरीयत कानून के तहत तय होते हैं. हालांकि, इन कानूनों में न तो ऐसी शर्तों को स्पष्ट रूप से मान्यता दी गई है, न ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है. इसी तरह, भारतीय ट्रस्ट अधिनियम, 1882 भी इसे स्पष्ट रूप से नहीं रोकता. नतीजतन, भारतीय कानून में इस मामले में एक ‘खाली जगह’ है, और अदालतों को प्रत्येक मामले में अपने विवेक से फैसला लेना पड़ता है. यह अनिश्चितता वसीयतकर्ताओं और लाभार्थियों दोनों के लिए स्पष्ट नियमों की जरूरत को रेखांकित करती है.
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