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बैकुंठपुर धाम का प्राचीन शिवालय और मद्धेशिया जलेबी भंडार की कहानी.

देवरिया: देवरिया के बैकुंठपुर धाम में स्थित इस प्राचीन शिवालय की पवित्रता स्थानीय लोगों के दिलों में बसी है. माना जाता है कि बैकुंठपुर नाथ मंदिर लगभग 300 साल पुराना है और महारात्रि के अवसर पर यहां दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ देखते ही बनती है. इस धाम की एक खास पहचान है “मद्धेशिया जलेबी भंडार” — यहां की जलेबियां दही और देसी गुड़ से बनाई जाती हैं और पारंपरिक कढ़ाही और हाथ की लट्ठी से तैयार की जाती हैं.

धाम का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिदृश्य
धाम का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिदृश्य बैकुंठपुर धाम में मुख्य रूप से भगवान शिव की कथा का वर्णन होता है. पुरानी शिलालेखों और स्थानीय वंशावलियों के अनुसार, इस मंदिर की नींव 18वीं सदी में रखी गई थी. सालों से गांव के दीपकों की रोशनी में यहां का महाशिवरात्रि मेला एक जीवंत त्योहार बन चुका है, जिसमें नृत्य-नाटिका, झांकी, भजन-कीर्तन और ग्रामीण हस्तशिल्प की प्रदर्शनी होती है. सरकारी स्तर पर इस मेले को “देवरिया कल्चरल फेस्ट” का दर्जा मिला हुआ है, जिसमें हाथ से बनी गुड़-जलेबी की महक देखते ही बनती है.

परंपरागत तवा पर सजी-धजी जलेबियां बनाना
“मद्धेशिया जलेबी भंडार” की शुरुआत करीब चार दशक पहले सुरेश मद्धेशिया ने अपने पिता के साथ गुड़ के ढेर और एक छोटी-सी ईंट-खपची की दुकान से शुरुआत की. दही में भिगोकर तैयार गुड़ को छानकर पिघलाना, हाथ से घोल खौलाना, और परंपरागत तवा पर सजी-धजी जलेबियां बनाना—यह सब उन्होंने पीढ़ियों से सीखा.

श्रद्धालु विमल प्रसाद कहते हैं “यहां की जलेबी में ऐसा स्वाद है, जैसे भक्तिपूर्ण लय में ढली मिठास—हर निवाले में माथे की तिलक-सी सजीव होती है.” उनके साथ मिथिलेश मद्धेशिया हर सुबह सूर्योदय तक दुकान के पीछे बने पल्ले पर गुड़ छानते, आटा गूंथते और कढ़ाही में तड़के सुत्र बांधते हैं.

रोज़ाना 25 किलो जलेबी और सरकारी मान्यता एक साधारण दिन में भी यह जोड़ी करीब 25 किलो गुड़-जलेबी बेच देती है. गांव के किसान, धाम के श्रद्धालु, और पड़ोस के दुकानदार तीनों ही इन जलेबियों के प्रशंसक हैं. सरकारी कार्यक्रमों में—चाहे वह जिला स्तरीय मेले हों या राज्य सरकार द्वारा आयोजित “ग्रामीण उद्यमिता प्रदर्शनी”—इन आयोजनों में “मद्धेशिया जलेबी भंडार” का स्टॉल अनिवार्य रूप से शामिल होता है.

गरमा-गरम जलेबियां दूर-दूर तक पहचान
एक स्थानीय विकास अधिकारी ने बताया “बैकुंठपुर मेले में इस काउंटर की गरमा-गरम जलेबियां दूर-दूर तक पहचान बन गई हैं. हम हर वर्ष इन्हें न्यौता देते हैं, क्योंकि ये धाम की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं.”

मिठास में पिरोया आत्मविश्वास इस दुकान ने न केवल परंपरा बचाई, बल्कि ग्रामीण स्वरोजगार के एक सफल मॉडल के रूप में खुद को पेश किया. सुरेश कहते हैं, “सरकारी मदद नहीं मिली, पर हमारे गुड़-जलेबी का स्वाद खुद ब खुद पहचान बना लिया.” मिथिलेश जोश से कहते हैं, “हर जलेबी में पिता की परंपरागत विधि और मेरा नया जोश दोनों घुल-मिल जाते हैं.”

बैकुंठपुर धाम की शरण में आई भीड़ जब मंदिर से बाहर निकलकर “मद्धेशिया जलेबी भंडार” से गुज़रती है, तो एक मुखर अनुरोध सुनाई देता है:

“एक प्लेट जलेबी लीजिए, विश्वास मानिए—ये धाम की मीठी यादों का पहला लड्डू है!”

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